‘ठहरना’ क्रिया
डॉ.
योगेन्द्रनाथ मिश्र
ठहरना स्थितिबोधक मूल अकर्मक क्रिया है।
अर्थात् गतिबोधक क्रिया का विपरीतार्थक। ठहरना अर्थात् किसी स्थान पर (मेरी दृष्टि
दिवाल पर ठहर गई) या स्थान में (मेहमान ऊपर के कमरे में ठहरे हैं) किसी पदार्थ का
स्थिर या स्थित होना। वह स्थान मूर्त भी हो सकता है, अमूर्त (हवा बंद होने पर पतंग आकाश में ठहर गई है) भी हो
सकता है तथा काल्पनिक (राजा कई दिनों तक सपनों के महल में ठहरा रहा।) भी हो सकता
है। वह पदार्थ भी मूर्त (गाड़ी स्टेशन पर ठहरी है), अमूर्त या काल्पनिक हो सकता है।
ठहरना क्रिया के दोनों प्रेरणार्थक रूप
बनते हैं - ठहराना (प्रथम प्रेरणार्थक), ठहरवाना
(द्वितीय प्रेरणार्थक)।
सभी प्रेरणार्थक क्रियाएँ सकर्मक होती
हैं। ऐसे में मूल अकर्मक क्रिया ठहरना से बनीं ठहराना तथा ठहरवाना क्रियाएँ सकर्मक
हैं।
डॉ.
योगेन्द्रनाथ मिश्र
40, साईंपार्क
सोसाइटी, वड़ताल रोड
बाकरोल-388315,
आणंद (गुजरात)
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ज्ञानवर्धक
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